हर घड़ी ख़ुद से

हर घड़ी ख़ुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा किससे पूछूँ कि कहाँ गुम हूँ बरसों से हर जगह ढूँढता फिरता है मुझे घर मेरा मुद्दतें बीत गईं इक ख़्वाब सुहाना… Continue reading हर घड़ी ख़ुद से

रोज़ आ जाते हो

रोज़ आ जाते हो बिना इत्तेला दिए ख्वाबों में…. कोई देख लेगा तो हम क्या जवाब देंगे……

सख़्त हाथों से

सख़्त हाथों से भी…. छूट जाती हैं कभी उंगलियाँ…. रिश्ते ज़ोर से नहीं…. तमीज़ से थामे जाते हैं…

यह भी नहीं कि

यह भी नहीं कि मेरे मनाने से आ गया जब रह नहीं सका तो .. बहाने से आ गया |

बस यही सोचकर

बस यही सोचकर मैं शिकवा नहीं करता…!!! हर कोई तो यहाँ पर वफ़ा नहीं करता….

दर्द का क्या है

दर्द का क्या है, जरूरी नहीं चोट लगने पर होता है। दर्द वहाँ अक्सर दिखता है, जहाँ दिल में अपनापन होता है।।

लाख पता बदला

लाख पता बदला …..मगर पहुँच ही गया… ये ग़म भी था कोई “डाकिया” ज़िद्दी सा…

हज़ारों भुला दिए!

अभी तक, याद कर रहे हो पागल; उसने तो तेरे बाद भी, हज़ारों भुला दिए!

वादा है तुमसे

वादा है तुमसे दिल बनकर तुम धड़कोगे और सांस बनकर हम आएँगे।

तेरा साया भी

तेरा साया भी पड़ जाए रूह जी उठती है, सोच तेरे आने से मंजर क्या होगा|

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