कितना मुश्क़िल सवाल

कितना मुश्क़िल सवाल पूछ लिया… तुमने तो हाल चाल ही पूछ लिया…

कभी चुप तो कभी गुम

कभी चुप तो कभी गुम सी हैं, ये बारिशें भी बिलकुल तुम सी हैं।

गए वो दिन कि शिकवे थे

गए वो दिन कि शिकवे थे जहाँ के… अब अपना ही गिला है और मैं हूँ..

हमने सूरज की रोशनी में

हमने सूरज की रोशनी में कभी अदब नहीं खोया, कुछ लोग तो जुगनुओं की चमक में मगरूर हो गए…

हम ज़माने से

हम ज़माने से इंतक़ाम तो ले इक हँसी दरमियान है प्यारे

खुदा जाने यह किसका

खुदा जाने यह किसका जलवा है दुनियां ए बस्ती में हजारों चल बसे लेकिन, वही रौनक है महफिल की।

हाँ ठीक है

हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मेरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई

जब कोई अपना

जब कोई अपना मर जाता है ना साहिब…..! फिर कब्रिस्तानों से डर नही लगता…

किसे याद किया करता हैं

धुप में कौन किसे याद किया करता हैं पर तेरे शहर में बरसात तो होती होगी

हमारा तजरबा हमको

हमारा तजरबा हमको सबक़ ये भी सिखाता है कि जो मक्खन लगाता है वो ही चूना लगाता है|

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