जाने क्यूँ अब शर्म, से चेहरे गुलाब नहीं होते। जाने क्यूँ अब, मस्त मौला मिजाज नहीं होते। पहले बता दिया करते थे, दिल की बातें। जाने क्यूँ अब चेहरे, खुली किताब नहीं होते।
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तारीफ़ करें खुदा
औकात क्या जो लिखूं नात आका की शान में। खुद तारीफ़ करें खुदा मुस्तफ़ा की कुरान में। और कीड़े पड़ेंगे देखना तुम उसकी ज़बान में। गुस्ताख़ी करता हैं जो मेरे आका की शान मे।
नतीजो को इनाम
दुनिया सिर्फ नतीजो को इनाम देती कोशिशो को नही.
माँ-बाप घर पर है
वो अनजान चला है जन्नत को पाने की खातिर बेख़बर को इत्तला कर दो की माँ-बाप घर पर है|
दुनिया तो वैसे
दिल बङा रखें.. दुनिया तो वैसे भी ‘बहुत छोटी’ है…!
मुझे भी कुछ
मुझे भी कुछ गहरा सा..!! . . ऐ बेवफा . . जिसे कोई भी पढे., समझ बस तुम सको..!!
इश्क़ मे उनके
इश्क़ मे उनके जान देके, हम भी दिखा देते मगर, तभी याद आया की, मोहब्बत तो अंधी होती
मौत से क्या
मौत से क्या डर मिनटों का खेल है आफत तो ज़िन्दगी है बरसों चला करती है.
जिन्दगी की जेब
बार बार रफू करता रहता हूँ जिन्दगी की जेब… कम्बखत फिर भी निकल जाते हैं खुशियों के कुछ लम्हें… ज़िन्दगी में सारा झगड़ा ही ख़्वाहिशों का है….. ना तो किसी को गम चाहिए और, ना ही किसी को कम चाहिए….!!!
वो अल्फाज़ जिसे
जिंदगी की थकान में गुम हो गया, वो अल्फाज़ जिसे “सुकून” कहते है…