जो उड़ गये परिन्दे

जो उड़ गये परिन्दे उनका अफसोस क्या करुँ… यहाँ तो पाले हुये भी गैरो की छत पर उतरते है…

किताब बदलने की

मैं इतनी छोटी कहानी भी न था, तुम्हें ही जल्दी थी किताब बदलने की।।

सुना है कि ख़त जला दिया है

सुना है कि ख़त जला दिया है उसने, सुना है कि अब वो राख पढ़ा करती है…

कोशिश में हूँ

कोशिश में हूँ कि कह दूँ सब कुछ इस क़दर, तेरा नाम भी ले लूँ और तेरा जिक्र भी ना हो…

माफ़ी चाहता हूँ

माफ़ी चाहता हूँ गुनाहगार हूँ तेरा ऐ दिल…!! तुझे उसके हवाले किया जिसे तेरी कदर नहीं…!!

जब कभी भी ख़वाब में

जब कभी भी ख़वाब में सहरा नज़र आया मुझे। तिश्नगी में हमें मेरे मौला बस तेरा चेहरा नज़र आया मुझे।।

जब कभी भी

जब कभी भी ख़वाब में सहरा नज़र आया मुझे। तिश्नगी का इक नया चेहरा नज़र आया मुझे।।

लिखता हूँ तो

लिखता हूँ तो बस तुम ही उतरते हो कलम से , पढ़ता हूँ तो लहजा भी तुम और आवाज़ भी तुम|

परिंदों को तो

परिंदों को तो खैर रोज कहीं से, गिरे हुए दाने जुटाने हैं पर वो क्यों परेशान हैं, जिनके भरे हुए तहखाने हैं|

पा सकेंगे न उम्र भर

पा सकेंगे न उम्र भर जिसको जुस्तुजू आज भी उसी की है।

Exit mobile version