ख्वाईश दो निवालों की हमे बर्तन की हाजत क्या, फ़खिर अपनी हथेली को ही दस्तरख्वान कहते हैं|
Category: दर्द शायरी
ख्वाईश दो निवालों की
ख्वाईश दो निवालों की हमे बर्तन की हाजत क्या, फ़खिर अपनी हथेली को ही दस्तरख्वान कहते हैं.!
रब ने सब्र करने की
रब ने सब्र करने की मुझे तौफ़ीक़ बक्शी है…. अरे जी भर के तड़पाओ शिकायत कौन करता है….
बड़ी जल्दी सीख लेता हूँ
बड़ी जल्दी सीख लेता हूँ ज़िन्दगी का सबक, गरीब घर का लड़का हूँ बात बात पे ज़िद नहीं करता |
उस टूटे झोपड़े में
उस टूटे झोपड़े में बरसा है झुम के भेजा ये कैसा मेरे खुदा सिहाब जोड़ के
सिर्फ अपना ही
मोहब्बत तो सिर्फ शब्द है.. इसका अहसास तुम हो.. शब्द तो सिर्फ नुमाइश है.. जज्ब़ात तो मेरे तुम हो..
मन तो करता है
मन तो करता है कि तुझे पहचानने से भी इंकार कर दूँ…… . . पर क्या करूँ… तू मिले तो अच्छा ना मिले तो और भी अच्छा… पर सुन ! मैं कम अच्छे में भी खुश हूँ….
यूँ उतरेगी न गले से
यूँ उतरेगी न गले से ज़रा पानी तो ला, चखने में कोई मरी हुई कहानी तो ला!
मेरी बस्ती में
मेरी बस्ती में मज़हब नाम का इक रहता है बूढ़ा, जो मेरे दोस्तों को मेरे घर आने नहीं देता |
वो अच्छे हैं
वो अच्छे हैं तो बेहत्तर, बुरे हैं तो भी कुबूल। मिजाज़-ए-इश्क में, ऐब-ए-हुनर नहीं देखे जाते|