हम ज़माने से इंतक़ाम तो ले इक हँसी दरमियान है प्यारे
Category: व्यंग्य शायरी
इश्क़ की दास्ताँ है
इश्क़ की दास्ताँ है प्यारे अपनी अपनी जुबान है प्यारे रख कदम फूंक फूंक कर नादाँ ज़र्रे ज़र्रे में जान है प्यारे।
लफ़्ज़ों की शर्मिंदगी
लफ़्ज़ों की शर्मिंदगी देखने वाली थी !! खत में मुझे उसने बोसे भेजे थे !!
खुदा जाने यह किसका
खुदा जाने यह किसका जलवा है दुनियां ए बस्ती में हजारों चल बसे लेकिन, वही रौनक है महफिल की।
काश एक ख़्वाहिश
काश एक ख़्वाहिश पूरी हो इबादत के बगैर, तुम आ कर गले लगा लो मुझे, मेरी इज़ाज़त के बगैर….!!
हाँ ठीक है
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ आख़िर मेरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
आलमारी मैं बंद रखा जाता है
आलमारी मैं बंद रखा जाता है कभी पहना नहीं जाता हाल अपना भी अब बेवा के जेवर जैंसा हो गया है|
जब कोई अपना
जब कोई अपना मर जाता है ना साहिब…..! फिर कब्रिस्तानों से डर नही लगता…
नजरे छुपाकर क्या मिलेगा…
नजरे छुपाकर क्या मिलेगा… नजरे मिलाओ,शायद हम मिल जाये
किसे याद किया करता हैं
धुप में कौन किसे याद किया करता हैं पर तेरे शहर में बरसात तो होती होगी