तुम्हें ग़ैरों से कब

तुम्हें ग़ैरों से कब फुर्सत हम अपने ग़म से कब ख़ाली चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली.

मैं डूबता हूँ

ना जाने किसकी दुआओं का फैज़ है मुझपर, मैं डूबता हूँ और दरिया उछाल देता है..

शर्म आती है

जब कभी खुद की हरकतों पर शर्म आती है ….. चुपके से भगवान को भोग खिला देता हूँ …..

कोई तो पैमाना

काश कोई तो पैमाना होता मोहब्बत नापने का तो शान से तेरे सामने आते सबुत के साथ

खिलाफत मे ज़िंदगी

खिलाफत मे ज़िंदगी की ये हश्र भी हो गया, मकबरा तो बही है पर मुर्दों ने,कब्रस्तान बदल दिये,

दर्द दिल का

दर्द दिल का कैसे बयाँ करे भला अल्फाजो में हम वो लफ्ज कहाँ से लायें जिसमे समा जायें सब गम”

अल्फ़ाज़ मैला कर दिया

हर भूख हर प्यास हर मतलब को प्यार बताकर लोगों ने यह अल्फ़ाज़ मैला कर दिया”

जलाने के लिए

सूखे पत्ते की तरह बिखरे थे ए दोस्त, किसी ने समेटा भी तो जलाने के लिए !

सच मानते थे

यही सोच कर उसकी हर बात को सच मानते थे के इतने खुबसूरत होंठ झूठ कैसे बोलेंगे

देखेंगे अब जिंदगी

देखेंगे अब जिंदगी चित होगी या पट……. हम किस्मत का सिक्का उछाल बैठे हैं….

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