अपना मुक़द्दर ग़म से

अपना मुक़द्दर ग़म से बेग़ाना अगर होता तो फिर अपने-पराए हमसे पहचाने कहाँ जाते |

मैं अपनी ज़ात में

मैं अपनी ज़ात में नीलाम हो रहा हूँ ग़म-ए-हयात से कह दो ख़रीद लाये मुझे|

सदियों की सज़ा पाई

लम्हों मे खता की है सदियों की सज़ा पाई |

ये भी तो सज़ा है

ये भी तो सज़ा है कि गिरफ़्तार-ए-वफ़ा हूँ क्यूँ लोग मोहब्बत की सज़ा ढूँढ रहे हैं|

काँटे बहुत थे

काँटे बहुत थे दामन-ए-फ़ितरत में ऐ ‘अदम’ कुछ फूल और कुछ मेरे अरमान बन गये|

वही इश्क़ हैं

तुमसे मीलने और तुम में मीलने में …. जो फ़र्क़ है…. वही इश्क़ हैं……

बहुत ढूंढने पर भी

बहुत ढूंढने पर भी अब शब्द नही मिलते अक्सर…. अहसासों को शायद पनाह क़लम की अब गंवारा नही…

पर्दा गिरते ही

पर्दा गिरते ही तमाशा ख़तम हो जाता है, फिर बहुत रोते हैं औरों को हँसाने वाले..

ख़्यालात का रंग

ये शहर शहरे-मुहब्बत की अलामत था कभी इसपे चढ़ने लगा किस-किस के ख़्यालात का रंग|

जब आता है

जब आता है गर्दिश का फेर , मकड़ी के जाले में फसता है शेर |

Exit mobile version