सन्नाटा कहता है

गलियों की उदासी पूछती है, घर का सन्नाटा कहता है… इस शहर का हर रहने वाला क्यूँ दूसरे शहर में रहता है..!

इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है

हम-सफ़र चाहिए हुजूम नहीं.. इक मुसाफ़िर भी क़ाफ़िला है मुझे..

तसल्ली को कहा था

वो तो बस झूटी तसल्ली को कहा था तुम से हम तो अपने भी नहीं, ख़ाक तुम्हारे होते

हमारा क़ुसूर निकलेगा

उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़ हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगाहमारा क़ुसूर निकलेगा

बन के इश्तिहार मिला।

ये शहर है कि नुमाइश लगी हुई है कोई, जो आदमी भी मिला, बन के इश्तिहार मिला।

घर टूट जाते है

मकान बन जाते है कुछ हफ्तों में, ये पैसा कुछ ऐसा है…और घर टूट जाते है चंद पलो में, ये पैसा ही कुछ ऐसा है..।।

वहाँ का भी सोचूँगा

फिरदोस-ए-जन्नत में लाख हूरों का तस्सवुर सही…. इक इंसान के इश्क़ से निकलु तो वहाँ का भी सोचूँगा ….

कोई पीछे से

याद ही नहीं रहता कि लोग छोड़ जाते हैं.आगे देख रहा था, कोई पीछे से चला गया.

मुझको मिलने आना

तेरा आधे मन से मुझको मिलने आना, खुदा कसम मुझे पूरा तोड़ देता है…

रास्ता एक यही निकलता है

आप मुझ से, मैं आप से गुज़रूँ….रास्ता एक यही निकलता है…..

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