एक रस्सी है

एक रस्सी है.. जिसका एक सिरा ख्वाहिशों ने पकड़ा है.. और दूसरा औकात ने… . . इसी खींचातानी का नाम जिंदगी है।

ज़ख्म भले ही

ज़ख्म भले ही अलग अलग हैं, लेकिन दर्द बराबर है । कोई फर्क़ नहीं पड़ता है, तुम सह लो या मैं सह लूँ ।

तेरे बसरने का

तेरे बसरने का आज मुझे मलाल है क्योंकि ये गरीब किसान की रोटी का सवाल है

हम दोनों का नाम

लोग आज भी हम दोनों का नाम साथ में लेते हे.. ना जाने ये “शोहरत” है या “बदनामी”

हथेलियों पर मेहँदी

हथेलियों पर मेहँदी का “ज़ोर” ना डालिये, दब के मर जाएँगी मेरे “नाम” कि लकीरें…

क्यूँ बदलते हो

क्यूँ बदलते हो अपनी फितरत को ए मौसम, इन्सानों सी। तुम तो रहते हो रब के पास फिर कैसे हवा लगी जमाने की।।।

ताल्लुकात खुद से

ताल्लुकात खुद से जब बढती जाती है कम होती जाती हैं शिकायतें दुनिया से…

अजब रंग समेटे हैं

कितने अजब रंग समेटे हैं ये बेमौसम बारिश ने. . . . नेता पकौड़े खाने की सोच रहा है तो किसान जहर

जो खुद को

जो खुद को मैं कभी मिल गया होता.. मेरे जिक्र से ये जमाना हिल गया होता…

इन्सान कम थे क्या

इन्सान कम थे क्या.. जो अब मोसम भी धोखा देने लगे..

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