ख़ता ये हुई

ख़ता ये हुई,तुम्हे खुद सा समझ बैठे जबकि,तुम तो…‘तुम’ ही थे

शिकायत तुम्हे वक्त से नहीं

शिकायत तुम्हे वक्त से नहीं खुद से होगी, कि मुहब्बत सामने थी, और तुम दुनिया में उलझी रही…

कौन कहता है

कौन कहता है दुनिया में हमशक्ल नहीं होते देख कितना मिलता है तेरा “दिल” मेरे “दिल’ से.!

लिखा जो ख़त

लिखा जो ख़त हमने वफ़ा के पत्ते पर, डाकिया भी मर गया शहर ढूंढते ढूंढते..

उस तीर से

उस तीर से क्या शिकवा, जो सीने में चुभ गया, लोग इधर हंसते हंसते, नज़रों से वार करते हैं।

तुम नफरतों के धरने

तुम नफरतों के धरने,क़यामत तक ज़ारी रखो। मैं मोहब्बत से इस्तीफ़ा,मरते दम तक नहीं दूंगा।

मंजिल पर पहुंचकर

मंजिल पर पहुंचकर लिखूंगा मैं इन रास्तों की मुश्किलों का जिक्र, अभी तो बस आगे बढ़ने से ही फुरसत नही..

पेड़ को नींद नहीं आती

पेड़ को नींद नहीं आती… जब तक आख़री चिड़िया घर नहीं आती…

हजारों महफिलें है

हजारों महफिलें है और लाखों मेले हैं, पर जहां तुम नहीं वहाँ हम अकेले हैं|

भ्रम है केवल

भ्रम है केवल चश्म का, या बदले की रेस। चित्त बदलते हैं कभी, कभी बदलते फेस।।

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