अब्र बरसते तो

अब्र बरसते तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है |
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है |
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है |
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है ||

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