तकदीर ने यह कहकर

तकदीर ने यह कहकर बङी तसल्ली दी है मुझे कि.. वो लोग तेरे काबिल ही नहीं थे, जिन्हें मैंने दूर किया है..

लिखा जो ख़त हमने

लिखा जो ख़त हमने वफ़ा के पत्ते पर, डाकिया भी मर गया शहर ढूंढते ढूंढते..

उस तीर से

उस तीर से क्या शिकवा, जो सीने में चुभ गया, लोग इधर हंसते हंसते, नज़रों से वार करते हैं।

गुज़री तमाम उम्र

गुज़री तमाम उम्र उसी शहर में जहाँ… वाक़िफ़ सभी थे कोई पहचानता न था..

मुझे मालूम है..

मुझे मालूम है.. कि ऐसा कभी.. मुमकिन ही नही ! फिर भी हसरत रहती है कि.. ‘तुम कभी याद करो’ !!

तुझे ही फुरसत ना थी

तुझे ही फुरसत ना थी किसी अफ़साने को पढ़ने की, मैं तो बिकता रहा तेरे शहर में किताबों की तरह..

हमारी शायरी पढ़ कर

हमारी शायरी पढ़ कर बस इतना सा बोले वो , कलम छीन लो इनसे .. ये लफ्ज़ दिल चीर देते है ..

वो रोई तो जरूर

वो रोई तो जरूर होगी खाली कागज़ देखकर, ज़िन्दगी कैसी बीत रही है पूछा था उसने ख़त में..

तलाशी लेकर मेरे हाथों की

तलाशी लेकर मेरे हाथों की क्या पा लोगे तुम बोलो, बस चंद लकीरों में छिपे अधूरे से कुछ किस्से हैं..

तू भी तो आइने की तरह

तू भी तो आइने की तरह बेवफा निकला, जो सामने आया उसी का हो गया..

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