मैं भी कभी हँसता खेलता था

मैं भी कभी हँसता खेलता था, कल एक पुरानी तस्वीर में देखा था खुद को……..

अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं

अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ

गीली लकड़ी सा इश्क

गीली लकड़ी सा इश्क उन्होंने सुलगाया है…. ना पूरा जल पाया कभी, ना बुझ पाया है….

फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं

फल तो सब मेरे दरख्तों के पके हैं लेकिन इतनी कमजोर हैं शाखें कि हिला भी न सकूँ

मेरे लफ़्ज़ों से न कर मेरे क़िरदार का

मेरे लफ़्ज़ों से न कर मेरे क़िरदार का फ़ैसला; तेरा वज़ूद मिट जायेगा मेरी हकीक़त ढूंढ़ते ढूंढ़ते।

हवा के साथ उड़ गया घर इस परिंदे का

हवा के साथ उड़ गया घर इस परिंदे का, कैसे बना था घोसला वो तूफान क्या जाने !

गलतफहमियोँ की हद तब हुई….

गलतफहमियोँ की हद तब हुई….जब हमने उनसे कहा. ‘रुको…, मत जाओ’…, और उन्होंने सुना…‘रुको मत…जाओ’…!!

जो चहरे दिखते नहीँ थे

जो चहरे दिखते नहीँ थे मोहल्ले मै.. . . भूकम्प ने सबका दीदार करा दिया ..

जो चेहरे कभी दिखते नही थे मोहल्लों मे।

जो चेहरे कभी दिखते नही थे मोहल्लों मे। भूकंप ने सबका दीदार करा दिया। न नमाज़ दिखी न अज़ान दिखी | न भजन दिखा न कीर्तन दिखा | न हिन्दू दिखा न मुसलमान दिखा…| घर से भागता हुआ बस इंसान दिखा…||

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