पहाड़ों के क़दों

पहाड़ों के क़दों की खाइयाँ हैं
बुलन्दी पर बहुत नीचाइयाँ हैं

है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं

गले मिलिए तो कट जाती हैं जेबें
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैं

हवा बिजली के पंखे बाँटते हैं
मुलाज़िम झूठ की सच्चाइयाँ हैं

बिके पानी समन्दर के किनारे
हक़ीक़त पर्वतों की राइयाँ हैं

गगन छूते मकां भी, झोपड़े भी
अजब इस शहर की रानाइयाँ हैं

दिलों की बात होठों तक न आए
कसी यूँ गर्दनों पर टाइय़ाँ हैं

नगर की बिल्डिंगें बाँहों की सूरत
बशर टूटी हुई अँगड़ाइयाँ हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *