रुख़सत हुआ तो

रुख़सत हुआ तो आँख मिलाकर नहीं गया,
वो क्यूँ गया है ये भी बताकर नहीं गया।

यूँ लग रहा है जैसे अभी लौट आएगा,
जाते हुए चिराग़ बुझाकर नहीं गया।

बस, इक लकीर खेंच गया दरमियान में,
दीवार रास्ते में बनाकर नहीं गया।

शायद वो मिल ही जाए मगर जुस्तजू है शर्त,
वो अपने नक़्श-ए-पा तो मिटाकर नहीं गया।

घर में हैं आज तक वही ख़ुशबू बसी हुई,
लगता है यूँ कि जैसे वो आकर नहीं गया।

रहने दिया न उसने किसी काम का मुझे,
और ख़ाक में भी मुझको मिलाकर नहीं गया।

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