रात थी और स्वप्न था तुम्हारा अभिसार था !
कंपकपाते अधरद्व्य पर कामना का ज्वार था !
स्पन्दित सीने ने पाया चिरयौवन उपहार था ,
कसमसाते बाजुओं में आलिंगन शतबार था !!
आखेटक था कौन और किसे लक्ष्य संधान था !
अश्व दौड़ता रात्रि का इन सबसे अनजान था !
झील में तैरती दो कश्तियों से हम मिले ,
केलिनिश का काल प्रिये मायावी संसार था !!
चंचल चूड़ी निर्लज्जा कौतक सब गाती रही !
सहमी हुई श्वास भी सरगम सुनाती रही !
मलयगिरी से आरोहित राहों के अवसान थे ,
प्रणय सिंधु की भाँवर में छाया हाहाकार था !!
नेह की अभिलाष भरी लालसा फिर तुम बनी !
मद भरा दो चक्षुओं में मदालसा फिर तुम बनी !
वेणी खुलकर यूँ बिखरी और रात गमक उठी ,
शशि धवल मुख देख खुद चाँद शर्मसार था !!