बड़ा है दर्द का
रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
चले
भी आओ…
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके
गरेबाँ का तार तार चले
चले भी आओ…
गुलों में रंग भरे,
बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा
आज ज़िक्र-ए-यार चले
चले भी आओ…
जो हमपे गुज़री सो गुज़री
मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले
चले भी
आओ…
कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब्ज़ हो आग़ाज़
कभी तो शब
सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले
चले भी आओ…
मक़ाम ‘फैज़’
कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार
चले
चले भी आओ…!