मंज़िल कहाँ ऐसे वैसों

सोनेरी संध्या…

उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो

ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो

अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो

चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो

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