खामोश चहरे पर
हजारो पहरे होते है,
हँसती आँखों में भी
जख्म गहरे होते है,
जिनसे अक्सर
रूठ जाते है हम,
असल में उनसे ही
रिश्ते ज्यादा गहरे होते है .
ये दोस्ती का बंधन भी
बडा अजीब है…
मिल जाए तो बातें लंबी….
बिछड जाए तो यादें लंबी….।
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
खामोश चहरे पर
हजारो पहरे होते है,
हँसती आँखों में भी
जख्म गहरे होते है,
जिनसे अक्सर
रूठ जाते है हम,
असल में उनसे ही
रिश्ते ज्यादा गहरे होते है .
ये दोस्ती का बंधन भी
बडा अजीब है…
मिल जाए तो बातें लंबी….
बिछड जाए तो यादें लंबी….।
ये बारिश भी तुम सी है,
जो थम गई तो थम गई।।
जो बरस गई तो बरस गई,
कभी आ गई यूँ बेहिसाब।।
कभी थम गई बन आफताब,
कभी गरज गरज कर बरस गई ।।
कभी बिन बताये यूँ ही गुज़र गई
कभी चुप सी है कभी गुम सी है
ये बारिश भी सच… तुम सी है…!!
झूठ बोलते थे कितना,फिर भी सच्चे थे
हम.. ये उन दिनों की बात है,जब बच्चे थे हम…!!
मेरी औकात है बस मिट्टी जितनी…
बात मैं महल मिनारों की कर जाता हूं…
एक दो रूपये देकर किराए की साइकिल चलाने का सुख,
तुम क्या जानो पल्सर वाले बाबू।
मुझे दोस्तों के साथ देखकर लौट जाते है गम,
कहते है, “इस का कुछ बिगाड नहीं सकते हम!
लेती नहीं दवाई माँ, जोड़े पाई-पाई माँ।
दुःख थे पर्वत, राई माँ हारी नहीं लड़ाई माँ।
इस दुनिया में सब मैले हैं, किस दुनिया से आई माँ।
दुनिया के सब रिश्ते ठंडे, गरमागर्म रजाई माँ।
जब भी कोई रिश्ता उधड़े, करती है तुरपाई माँ।
बाबू जी तनख़ा लाए बस, लेकिन बरक़त लाई माँ।
बाबूजी के पांव दबा कर, सब तीरथ हो आई माँ।
सभी साड़ियां छीज गई थीं , मगर नहीं कह पाई माँ।
माँ में से थोड़ी-थोड़ी, सबने रोज़ चुराई माँ।
घर में चूल्हे मत बांटो रे, देती रही दुहाई माँ।
बाबूजी बीमार पड़े जब, साथ-साथ मुरझाई माँ।
रोती है लेकिन छुप-छुप कर, बड़े सब्र की जाई माँ।
लड़ते-लड़ते, सहते-सहते, रह गई एक तिहाई माँ।
बेटी की ससुराल रहे खुश, सब ज़ेवर दे आई माँ।
माँ से घर, घर लगता है, घर में घुली, समाई माँ।
बेटे की कुर्सी है ऊंची, पर उसकी ऊंचाई माँ।
दर्द बड़ा हो या छोटा हो, याद हमेशा आई माँ।
घर के शगुन सभी माँ से, है घर की शहनाई माँ।
सभी पराये हो जाते हैं, होती नहीं पराई माँ।
तुम पे लिखना शुरु कहा से करु,
अदा से करु या हया से करु,
तुम सब कि दोस्ती इतनी खुबसुरत है,
पता नही कि तारिफ जुबा से करु या दुवाओं से करु…
न सफारी में नज़र आयी और
न ही फरारी मेँ……
जो खुशी बचपन मेँ साइकिल की
सवारी में नज़र आयी।
बचपन भी कमाल का था।
खेलते खेलते चाहें छत पर सोयें या ज़मीन पर,
आँख बिस्तर पर ही खुलती थी ..!!