अपना क्या है

जब से उस ने शहर को छोड़ा हर रस्ता सुनसान हुआ
अपना क्या है सारे शहर का इक जैसा नुक़सान हुआ

जिंदगी पर बस

जिंदगी पर बस इतना ही लिख पाया हूँ मैं….

बहुत मजबूत रिश्ते थे मेरे….
पर बहुत कमजोर लोगों से…..

मेरा है मुझमें

अलग दुनिया से हटकर भी कोई दुनिया है मुझमें,
फ़क़त रहमत है उसकी और क्या मेरा है मुझमें.
मैं अपनी मौज में बहता रहा हूँ सूख कर भी,
ख़ुदा ही जानता है कौनसा दरिया है मुझमें.
इमारत तो बड़ी है पर कहाँ इसमें रहूँ मैं,
न हो जिसमें घुटन वो कौनसा कमरा है मुझमें.
दिलासों का कोई भी अब असर होता नहीं है,
न जाने कौन है जो चीख़ता रहता है मुझमें.
नहीं बहला सका हूँ ज़ीष्त का देकर खिलौना
कोई अहसास बच्चे की तरह रोता है मुझमें.
सभी बढ़ते हुए क्यों आ रहे हैं मेरी जानिब,
कहाँ जाता है आखि़र कौनसा रस्ता है मुझमें.

सीख जाओ वक्त

सीख जाओ वक्त पर किसी की चाहत की कदर करना…
कहीं कोई थक ना जाये तुम्हें एहसास दिलाते दिलाते..!!