हर इक चेहरा

सहमा सहमा हर इक चेहरा,
मंज़र मंज़र खून में तर..
शहर से जंगल ही अच्छा है,
चल चिड़िया तू अपने घर.!

ले चल कही दूर

ले चल कही दूर मुझे तेरे सिवा जहाँ कोई ना हो.. बाँहो मे सुला लेना मुझको फिर कोई सवेरा ना हो.

कभी इश्क़ करो

कभी इश्क़ करो और फिर देखो इस आग में जलते रहने से..
कभी दिल पर आँच नहीं आती कभी रंग ख़राब नहीं होता…

वो एक ही चेहरा

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में,
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता।
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा,
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता।