एक चादर साँझ ने

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अँधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है!
निर्वसन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से ओट में जा-जा के बतियाती तो है!!!

वो एक ही चेहरा

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में,
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता।
मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा,
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता।

करम इतना सा

करम इतना सा करना मुझपे ए मालिक…
ज़िक्र जब फ़िक्र का हो तो मुझे ही आगे करना…
आग का दरिया हो या समंदर की गहराई….
मैं ही पार करुँगा पहले नहीं पड़ने दूंगा उसपे गम की कोई परछाई…