कोई भी ढांक सका न

कोई भी ढांक सका न, वफा का नंगा बदन
ये भिखारन तो हजारों घरों से गुजरी है।।

जब से ‘सूरज’ की धूप, दोपहर बनी मुझपे
मेरी परछाई, मुझसे फासलों से गुजरी है…

यूँ तो बहुत बार

यूँ तो बहुत बार,,,,बहुत कुछ सुनकर खुशी हुई है…
लेकिन सबसे बेहतरीन शब्द वो थे जब किसी ने मुस्कराकर कहा था कि, मुबारक हो बेटी हुई है|

तुम आ जाओ

तुम आ जाओ मेरी कलम की स्याही बनकर
मैं तुम्हें अपनी ज़िन्दगी के हर पन्ने में उतार दूँ