चांदनी के भरोसें

रातों को चांदनी के भरोसें ना छोड़ना,
सूरज ने जुगनुओं को ख़बरदार कर दिया…

रुक रुक के लोग देख रहे है मेरी तरफ,
तुमने ज़रा सी बात को अखबार कर दिया…

कहने को मैं

कहने को मैं अकेला हूं,पर हम चार है,
एक मैं, मेरी परछाई, मेरी तन्हाई और उसका एहसास

मत इन्हें उछाल

लफ़्ज़ “आईने” हैं
मत इन्हें उछाल के चल,

“अदब” की “राह” मिली है तो
“देखभाल” के चल

मिली है “ज़िन्दगी” तुझे
इसी ही “मकसद” से,

“सँभाल” “खुद” को भी और
“औरों” को “सँभाल” के चल “

गज़ल को पढ़कर

पहली बार किसी गज़ल को पढ़कर आंसू आ गए ।
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शख्सियत, ए ‘लख्ते-जिगर, कहला न सका ।
जन्नत,, के धनी “पैर,, कभी सहला न सका ।
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दुध, पिलाया उसने छाती से निचोड़कर,
मैं ‘निकम्मा, कभी 1 ग्लास पानी पिला न सका ।
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बुढापे का “सहारा,, हूँ ‘अहसास’ दिला न सका
पेट पर सुलाने वाली को ‘मखमल, पर सुला न सका ।
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वो ‘भूखी, सो गई ‘बहू, के ‘डर, से एकबार मांगकर,
मैं “सुकुन,, के ‘दो, निवाले उसे खिला न सका ।
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नजरें उन ‘बुढी, “आंखों,, से कभी मिला न सका ।
वो ‘दर्द, सहती रही में खटिया पर तिलमिला न सका ।
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जो हर “जीवनभर” ‘ममता, के रंग पहनाती रही मुझे,
उसे “दीवाली” पर दो ‘जोड़, कपडे सिला न सका ।
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“बिमार बिस्तर से उसे ‘शिफा, दिला न सका ।
‘खर्च के डर से उसे बडे़ अस्पताल, ले जा न सका ।
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“माँ” के बेटा कहकर ‘दम, तौडने बाद से अब तक सोच रहा हूँ,
‘दवाई, इतनी भी “महंगी,, न थी के मैं ला ना सका ।