क़त्ल तो मेरा

क़त्ल तो मेरा उसकी निगाहों ने ही किया था,
पर संविधान ने उन्हें हथियार मानने से इंकार कर दिया !!

आँख की छत पे

आँख की छत पे टहलते रहे काले साए
कोई पलकों में उजाले नहीं भरने आया
कितनी दीवाली गईं, कितने दशहरे बीते
इन मुंडेरों पे कोई दीप ना धरने आया|