नींदों ही नींदों में

नींदों ही नींदों में उछल पड़ता है,
रात के अँधियारे में चल पड़ता है!

मन से है वो बड़ा ही नटखट चंचल,
जिस किसी को देखा मचल पड़ता है!

ऐ नींद ! ज़रा देर से आया करो,
रात को भी काम में खलल पड़ता है!

कभी रहते थे जहाँ राजा-रानियाँ,
वहाँ जालों से अटा महल पड़ता है!

उसका वास्ता रहा सदैव गरमी से,
आदतन कभी-कभार उबल पड़ता है!

रात को नई ख़ुशी के इंतज़ार में,
सवेरा होते ही वह निकल पड़ता है!