तेरे शहर में

तेरे शहर में आने को हर कोई तरसता है
लेकिन वो क्या जाने
वहां कोई नही पहुँचता है

जो पहुँचता है
वो तुझसा ही होकर
कोई खुद सा वहां कब पहुँचता है

ये तो कुछ शब्दों का भ्रम जाल है इन मंदिर में रखी किताबो का
जो हर कोई तुझसे मिलने को तरसता है

खुल जाए अगर भ्रम काबा-ए-काशी
तो कौन फिर जान कर सूली पे चढ़ता है

वो जो शराब है तेरी
जिसे कहते मोहब्बत

पीने के बाद ही पतंगा
शमा पे मरता है

यूँ ही कोई क़ैस कहा लैला पे मरता है
जान कर
कोई कहाँ
सूली पे चढ़ता है ….

उस को भी

उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं,
इश्क़ ही इश्क़ की कीमत हो ज़रूरी तो नहीं।