चार लाइन दोस्तों के नाम

चार लाइन दोस्तों के नाम

काश फिर मिलने की वजह मिल जाए
साथ जितना भी बिताया वो पल मिल जाए,
चलो अपनी अपनी आँखें बंद कर लें,
क्या पता ख़्वाबों में गुज़रा हुआ कल मिल जाए..
मौसम को जो महका दे उसे
‘इत्र’ कहते हैं
जीवन को जो महका दे उसे ही ‘मित्र’ कहते है l
क्यूँ मुश्किलों में साथ देते हैं दोस्त
क्यूँ गम को बाँट लेते हैं दोस्त
न रिश्ता खून का न रिवाज से बंधा है
फिर भी ज़िन्दगी भर साथ देते हैं दोस्त

लेती नहीं दवाई माँ, जोड़े पाई-पाई माँ।

माँ

लेती नहीं दवाई माँ, जोड़े पाई-पाई माँ।

दुःख थे पर्वत, राई माँ हारी नहीं लड़ाई माँ।

इस दुनिया में सब मैले हैं, किस दुनिया से आई माँ।

दुनिया के सब रिश्ते ठंडे, गरमागर्म रजाई माँ।

जब भी कोई रिश्ता उधड़े, करती है तुरपाई माँ।

बाबू जी तनख़ा लाए बस, लेकिन बरक़त लाई माँ।

बाबूजी के पांव दबा कर, सब तीरथ हो आई माँ।

सभी साड़ियां छीज गई थीं , मगर नहीं कह पाई माँ।

माँ में से थोड़ी-थोड़ी, सबने रोज़ चुराई माँ।

घर में चूल्हे मत बांटो रे, देती रही दुहाई माँ।

बाबूजी बीमार पड़े जब, साथ-साथ मुरझाई माँ।

रोती है लेकिन छुप-छुप कर, बड़े सब्र की जाई माँ।

लड़ते-लड़ते, सहते-सहते, रह गई एक तिहाई माँ।

बेटी की ससुराल रहे खुश, सब ज़ेवर दे आई माँ।

माँ से घर, घर लगता है, घर में घुली, समाई माँ।

बेटे की कुर्सी है ऊंची, पर उसकी ऊंचाई माँ।

दर्द बड़ा हो या छोटा हो, याद हमेशा आई माँ।

घर के शगुन सभी माँ से, है घर की शहनाई माँ।

सभी पराये हो जाते हैं, होती नहीं पराई माँ।

घर ढूंढ़ता है

कोई छाँव,  तो कोई शहर ढूंढ़ता है
मुसाफिर हमेशा ,एक घर ढूंढ़ता है।।

बेताब है जो, सुर्ख़ियों में आने को
वो अक्सर अपनी, खबर ढूंढ़ता है।।

हथेली पर रखकर, नसीब अपना
क्यूँ हर शख्स , मुकद्दर ढूंढ़ता है ।।

जलने के , किस शौक में पतंगा
चिरागों को जैसे, रातभर ढूंढ़ता है।।

उन्हें आदत नहीं,इन इमारतों की
ये परिंदा तो ,कोई वृक्ष ढूंढ़ता है।।

अजीब फ़ितरत है,उस समुंदर की
जो टकराने के लिए,पत्थर ढूंढ़ता है
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