क्या है

क्या है?

हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है?
तुम ही कहो कि ये अंदाज़-ए-ग़ुफ़्तगू क्या है?

रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है?

चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी जेब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या है?

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा,
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तजू क्या है?

रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार और हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है?

टूट गया

टूट गया

समझौतों की भीड़-भाड़ में सबसे रिश्ता टूट गया
इतने घुटने टेके हमने, आख़िर घुटना टूट गया

देख शिकारी तेरे कारण एक परिन्दा टूट गया,
पत्थर का तो कुछ नहीं बिगड़ा, लेकिन शीशा टूट गया

घर का बोझ उठाने वाले बचपन की तक़दीर न पूछ
बच्चा घर से काम पे निकला और खिलौना टूट गया

किसको फ़ुर्सत इस दुनिया में ग़म की कहानी पढ़ने की
सूनी कलाई देखके लेकिन, चूड़ी वाला टूट गया

ये मंज़र भी देखे हमने इस दुनिया के मेले में
टूटा-फूटा नाच रहा है, अच्छा ख़ासा टूट गया

लेती नहीं दवाई माँ, जोड़े पाई-पाई माँ।

माँ

लेती नहीं दवाई माँ, जोड़े पाई-पाई माँ।

दुःख थे पर्वत, राई माँ हारी नहीं लड़ाई माँ।

इस दुनिया में सब मैले हैं, किस दुनिया से आई माँ।

दुनिया के सब रिश्ते ठंडे, गरमागर्म रजाई माँ।

जब भी कोई रिश्ता उधड़े, करती है तुरपाई माँ।

बाबू जी तनख़ा लाए बस, लेकिन बरक़त लाई माँ।

बाबूजी के पांव दबा कर, सब तीरथ हो आई माँ।

सभी साड़ियां छीज गई थीं , मगर नहीं कह पाई माँ।

माँ में से थोड़ी-थोड़ी, सबने रोज़ चुराई माँ।

घर में चूल्हे मत बांटो रे, देती रही दुहाई माँ।

बाबूजी बीमार पड़े जब, साथ-साथ मुरझाई माँ।

रोती है लेकिन छुप-छुप कर, बड़े सब्र की जाई माँ।

लड़ते-लड़ते, सहते-सहते, रह गई एक तिहाई माँ।

बेटी की ससुराल रहे खुश, सब ज़ेवर दे आई माँ।

माँ से घर, घर लगता है, घर में घुली, समाई माँ।

बेटे की कुर्सी है ऊंची, पर उसकी ऊंचाई माँ।

दर्द बड़ा हो या छोटा हो, याद हमेशा आई माँ।

घर के शगुन सभी माँ से, है घर की शहनाई माँ।

सभी पराये हो जाते हैं, होती नहीं पराई माँ।

सोनेरी संध्या…

सोनेरी संध्या..

उँगलियाँ यूँ न सब पर उठाया करो
खर्च करने से पहले कमाया करो

ज़िन्दगी क्या है खुद ही समझ जाओगे
बारिशों में पतंगें उड़ाया करो

दोस्तों से मुलाक़ात के नाम पर
नीम की पत्तियों को चबाया करो

शाम के बाद जब तुम सहर देख लो
कुछ फ़क़ीरों को खाना खिलाया करो

अपने सीने में दो गज़ ज़मीं बाँधकर
आसमानों का ज़र्फ़ आज़माया करो

चाँद सूरज कहाँ, अपनी मंज़िल कहाँ
ऐसे वैसों को मुँह मत लगाया करो