लफ़्ज़ों से ग़लतफ़हमियाँ बढ़ रहीं है.
चलो ख़ामोशियों में बात करते हैं.
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
लफ़्ज़ों से ग़लतफ़हमियाँ बढ़ रहीं है.
चलो ख़ामोशियों में बात करते हैं.
तकिये के लिहाफ में छुपाकर रखी हैं तेरी यादें,
जब भी तेरी याद आती है मुँह छुपा लेता हूँ
चाहूंगा मैं तुझे साँझ सवेरे !!
क्योंकि दोपहर को मुझे बैंक की लाइन में लगना है।
पाया भी उन को खो भी दिया चुप भी हो रहे,
इक मुख़्तसर सी रात में सदियाँ गुज़र गईं…
उम्र भर ख़्वाबों की मंज़िल का सफ़र जारी रहा,
ज़िंदगी भर तजरबों के ज़ख़्म काम आते रहे…
हाथ पकड़ कर रोक लेते अगर,तुझपर
ज़रा भी ज़ोर होता मेरा,
ना रोते हम यूँ तेरे लिये, अगर हमारी
ज़िन्दगी में तेरे सिवा कोई ओर होता !
इश्क की हिमाकत जो उनसे कर बैठे यूँ ही हम खुदसे बिछड़ बैठे !!!
सने ऐसी चाल चली के मेरी मात यकीनी थी,
फिर अपनी अपनी किस्मत थी,
हारी मैं, पछताया वो…..!!!!!!
कोई उम्मीद बर नहीं आती
नयी करेंसी नज़र नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से कैशियर को भी
लाइन हमारी नज़र नहीं आती
आगे आती थी खाली जेब पर हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
तुम मेरे लिए रेत क्यों हुए…पहाड़ क्यों न हुए ?
तुम मेरे लिए पहाड़ क्यों हुए…रेत क्यों न हुए ?
रेत…पहाड़…मैं…सब वही
सिर्फ… “तुम” बदल गए
पहली बार भी
और
फिर…आखिरी बार भी…