कुछ इस क़दर है

ज़माने में गद्दारी का आलम कुछ इस क़दर है…!!!!
… साहिब……
कि सरहद पर खडा जवान भी सोचता होगा,,, हमला बाहर से होगा या अंदर से ?

तू क्या लगायेगी

मेरे बर्दाश्त करने का अंदाजा तू क्या लगायेगी,

तेरी उम्र से कहीं ज्यादा मेरे जिस्म पर जख्मो के निशाँ हैं..

उनका कोई कसूर नहीं

वो छोड़ के गए हमें
न जाने उनकी क्या मजबूरी थी;
खुदा ने कहा इसमें उनका कोई कसूर नहीं ;
ये कहानी तो मैंने लिखी ही अधूरी थी।

मै खुश तो हूँ

कही दर्द की झीले, तो कही लहजे की करवटेँ..
उससे कहना मै खुश तो हूँ, मगर मेरा हर लफ़्ज रोता है..!