इस शहर में मजदूर जैसा दर बदर कोई नहीं
सैंकड़ों घर बना दिये पर उसका कोई घर नहीं
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
इस शहर में मजदूर जैसा दर बदर कोई नहीं
सैंकड़ों घर बना दिये पर उसका कोई घर नहीं
ताल्लुकात बढ़ाने हैं तो
कुछ आदतें बुरी भी सीख लो..
ऐब न हों..
तो लोग महफ़िलों में भी नहीं बुलाते…!
मरम्मतें खुद की रोज़ करता हूँ,
रोज़ मेरे अंदर एक नुक्स निकल आता है !!
तेरी याद इलाज -ए- ग़म है,
सोंच तेरा मुकाम क्या होगा!
तकदीरें बदल जाती हैं जब ज़िंदगी का कोई मकसद हो,
वरना ज़िंदगी कट ही जाती है तकदीरों को इल्ज़ाम देते देते!
दुरुस्त कर ही लिया मैंने नज़रिया अपना,
कि दर्द न हो तो मोहब्बत मज़ाक लगती है!
हद पार करने की भी…
एक हद होती है
न जाने कौन सी दौलत है तेरे लफ़्ज़ों में,
बात करते हो तो दिल खरीद लेते हो!
सरेआम न सही फिर भी रंजिश सी निभाते है..
किसी के कहने से आते किसी के कहने से चले जाते..
बहुत आसाँ हैं आदमी का क़त्ल मेरे मुल्क में,
सियासी रंजिश का नाम लेकर घर जला डालो…..