ना ऑंखें बोल पाती हैं, ना लफ़्ज़ों का लहू निकले है,
मेरे दर्द के दो ही गवाह थे और दोनों ही बेजुबां निकले..!!
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
ना ऑंखें बोल पाती हैं, ना लफ़्ज़ों का लहू निकले है,
मेरे दर्द के दो ही गवाह थे और दोनों ही बेजुबां निकले..!!
Log pehchan lete hai tere naam se ab mujhko.
Kabhi aake ek nazar to dekhle mujhko..
Mohabat Kisi Aisay Shakhs Ki Talash Nahi
Jis K Sath Raha Jaye…
Mohabat To Aisay Shakhs Ki Talash Hai
Jis K Baghair Na Raha Jaye..
Aks-e-Khusboo hoon..
Bikharne Se Na Roko..
जिंदगी तो अपने ही तरीके से चलती है….
औरों के सहारे तो जनाज़े उठा करते हैं।
सुबहे होती है , शाम होती है
उम्र यू ही तमाम होती है ।
कोई रो कर दिल बहलाता है
और
कोई हँस कर दर्द छुपाता है.
क्या करामात है कुदरत की,
ज़िंदा इंसान पानी में डूब जाता है
और मुर्दा तैर के दिखाता है…
Teri yaad bht tadpati hai mujhko
Kabhi ake ek nazar dekhle mujhko
जब मम्मी डाँट रहीं थी तो कोई चुपके से
हँसा रहा था,
वो थे पापा. . .
❤ जब मैं सो रहा था
तब कोई चुपके से
सिर पर हाथ
फिरा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ जब मैं सुबह उठा
तो कोई बहुत
थक कर भी
काम पर जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ खुद कड़ी धूप में
रह कर कोई
मुझे ए.सी. में
सुला रहा था
वो थे पापा. . .
❤ सपने तो मेरे थे
पर उन्हें पूरा करने का
रास्ता कोई और
बताऐ जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ मैं तो सिर्फ अपनी
खुशियों में हँसता हूँ,
पर मेरी हँसी
देख कर कोई
अपने गम भुलाऐ
जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ फल खाने की
ज्यादा जरूरत तो उन्हें थी,
पर कोई मुझे
सेब खिलाए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ खुश तो मुझे होना चाहिए
कि वो मुझे मिले ,
पर मेरे जन्म लेने की
खुशी कोई और
मनाए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ ये दुनिया पैसों से
चलती है पर कोई
सिर्फ मेरे लिए पैसे
कमाए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ घर में सब अपना प्यार
दिखाते हैं पर कोई
बिना दिखाऐ भी
इतना प्यार किए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ पेड़ तो अपना फल
खा नही सकते इसलिए
हमें देते हैं…
पर कोई अपना पेट
खाली रखकर भी
मेरा पेट भरे जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ मैं तो नौकरी के लिए
घर से बाहर जाने पर
दुखी था पर
मुझसे भी अधिक
आंसू कोई और
बहाए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
❤ मैं अपने “बेटा ”
शब्द को सार्थक बना सका
या नही.. पता नहीं…
पर कोई बिना स्वार्थ के अपने “पिता” शब्द को सार्थक बनाए जा रहा था ,
वो थे पापा. . .
बुरी आदतें अगर, वक़्त पे ना बदलीं जायें…
तो वो आदतें, आपका वक़्त बदल देती हैं”…..
जब तक हम ये जान पाते हैं कि ज़िन्दगी क्या है तब तक ये आधी ख़तम हो चुकी होती है.
माँ-बाप का घर बिका तो बेटी का घर बसा,
कितनी नामुराद है ये रस्म दहेज़ भी !!