अखबार तो रोज़ आता है घर में,
बस अपनों की ख़बर नहीं आती…..
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
अखबार तो रोज़ आता है घर में,
बस अपनों की ख़बर नहीं आती…..
कोई तबीर (लंबी) उम्र भी यूँ ही जीया,
कोई जरा सी उम्र में इतिहास रच गया..
घोंसला बनाने में… यूँ मशग़ूल हो गए..
उड़ने को पंख हैं… हम ये भी भूल गए…
मुझसे मत पूछा कर ठिकाना मेरा,
तुझ में ही लापता हूँ कहीं….
अब भी चले आते हैं ख्यालों में वो,
रोज लगती है हाजरी उस गैर हाजिर की….
भूले हैं रफ्ता रफ्ता उन्हें मुद्दतों में हम
किश्तों में खुदकुशी का मजा़ हमसे पुछिए !!!!!
मोहब्बत की बर्बादी का क्या अफ़साना था,,,,
दिल के टुकड़े हो गये ओर लोगों ने कहा
वाह क्या निशाना था….
उड़ान वालो उड़ानों पे वक़्त भारी है
परों की अब के नहीं हौसलों की बारी है
मैं क़तरा हो के तूफानों से जंग लड़ता हूँ
मुझे बचाना समंदर की ज़िम्मेदारी है
कोई बताये ये उसके ग़ुरूर-ए-बेजा को
वो जंग हमने लड़ी ही नहीं जो हारी है
दुआ करो कि सलामत रहे मेरी हिम्मत
ये एक चराग़ कई आँधियों पे भारी है
फिर पलट रही है सर्दियो की सुहानी शामें,
फिर उसकी याद में जलने का ज़माना आ
गया
इक तेरा हुस्न काफ़िराना था
दूसरी और शराबखाना था,
रास्ता इख़्तियार जो भी करता
आज अपना इमान जाना था…..
पीना है तो पी… पर इस तरह
घर को मयखाना ना बना
मयखाने को घर ना बना