हवा बन कर बिखरने से

हवा बन कर बिखरने से​;​
उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;​​

मेरे जीने या मरने से​;​
उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;

उसे तो अपनी खुशियों से​;​
ज़रा भी फुर्सत नहीं मिलती​;

मेरे ग़म के उभरने से​;​
उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​;

उस शख्स की यादों में​;​
मैं चाहे रोते रहूँ लेकिन​;

मेरे ऐसा करने से​;​
उसे क्या फ़र्क़ पड़ता है​।

आपने नज़र से नज़र

आपने नज़र से नज़र कब मिला दी,
हमारी ज़िन्दगी झूमकर मुस्कुरा दी,
जुबां से तो हम कुछ भी न कह सके,
पर निगाहों ने दिल की कहानी सुना दी.

उसे नष्ट करता है

बहुत सुन्दर सन्देश लोहे को कोई नष्ट नहीं कर सकता बस उसका जंग….. उसे नष्ट करता है,

इसी तरह आदमी को भी कोई और नहीं बल्कि उसकी सोच….. ही नष्ट कर सकती है!!

सोच अच्छी रखो,
निश्चित अच्छा …… ही होगा