लोग पत्थर उठाए फिरते हैं
और हम ग़ालिब-ऐ-दिवान उठाए फिरते है
Tag: शर्म शायरी
हिम्मतों का इम्तेहाँ
हौसलों का, हिम्मतों का इम्तेहाँ है ज़िन्दगी
जो मज़ा मुश्क़िल में है, वो ख़ाक़ आसानी में है
मेरे अंदाज़ से
सर झुकाने से नमाज़ें अदा नहीं होती…
दिल झुकाना पड़ता है इबादत के लिए…!
पहले मैं होशियार था,
इसलिए दुनिया बदलने चला था,
आज मैं समझदार हूँ,
इसलिए खुद को बदल रहा हूँ।।
बैठ जाता हूं मिट्टी पे अक्सर…
क्योंकि मुझे अपनी औकात अच्छी लगती है..
मैंने समंदर से सीखा है जीने का सलीक़ा,
चुपचाप से बहना और अपनी मौज में रहना ।।
ऐसा नहीं है कि मुझमें कोई ऐब नहीं है पर सच
कहता हूँ मुझमे कोई फरेब नहीं हैं !
जल जाते हैं मेरे अंदाज़ से मेरे दुश्मन क्यूंकि एक
मुद्दत से मैंने
न मोहब्बत बदली और न दोस्त बदले!!
मुसाफ़िर कल आए थे
दुनिया की इस रीत में सारे हैं मुसाफ़िर
कल आए थे-कुछ आज, तो कुछ लोग कल गए
मां की आंखो मे
कल अपने आप को देखा था मां की आंखो मे,
यह आईना मुझको बुढा नहीं बताता है..
तक़्दीर की बुलन्दी
तक़्दीर की बुलन्दी भी लोगों को खल गयी
निकला ज़रूर दम, मगर अरमाँ निकल गए
दिल में रहा
दिल में रहा न जोश तो दिल-दिल नहीं रहे
वो दिल ही क्या जो अक़्ल के हाथों सँभल गए
उम्र क्या ढली
माचिस की तीलियों की तरह उम्र क्या ढली
सब जात-पाँत ख़ाक़ की सूरत में ढल गए
धडकनों को कुछ
धडकनों को कुछ तो काबू में कर ए
दिल
अभी तो पलकें झुकाई है
मुस्कुराना अभी बाकी है उनका..
मैं कुछ कहूँ
मैं कुछ कहूँ और तेरा……… जिक्र न आये
उफ़्फ़…… ये तो तौहीन होगी तेरे फरेब की..