आख़िरी उम्र में कैसे मैं ग़मों को छोडूँ..
यह मेरे साथ रहें हैं सगे भाई की तरह !
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
आख़िरी उम्र में कैसे मैं ग़मों को छोडूँ..
यह मेरे साथ रहें हैं सगे भाई की तरह !
फासलों से अगर.. मुस्कुराहट लौट आये तुम्हारी…
तो तुम्हे हक़ है.. कि तुम… दूरियां बना लो मुझसे….
आंखें भी खोलनी पड़ती हैं उजाले के लिए…
सूरज के निकलने से ही अँधेरा नहीं जाता….
मेरी नाराज़गी तुमसे नहीं, तुम्हारे वक्त से है,
जो तुम्हारे पास मेरे लिए नहीं है..
अपनों के बीच,
गैरो की याद नहीं आती।
और गैरो के बीच,
कुछ अपने याद आते हैं।
मेरी याद कयामत की तरह है..
याद रखना..आएगी जरूर..
सूखने लगी है….स्याही शायद,ज़ख़्मों की दवात में…
वरना वो भी दिन थे,दर्द रिसता था धीरे-धीरे !
चित्रकार तुझे उस्ताद मानूँ!,
दर्द भी खींच मेरी तस्वीर के साथ..
सुनो मैं बहुत खुश हूँ..
कैसा लगा मेरा झूठ आपको…
दुसरो की छांव में खड़े रहकर,
हम अपनी परछाई खो देते है,
खुद की परछाई के लिये तो,
हमे धूप में खड़ा होना पड़ता है..