ये फैसला तो शायद वक़्त भी न कर सके
सच कौन बोलता है, अदाकार कौन है।
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
ये फैसला तो शायद वक़्त भी न कर सके
सच कौन बोलता है, अदाकार कौन है।
बदलने को हम भी बदल जाते…
फिर अपने आप को क्या मुंह दिखाते |
ख़ामोश सा शहर और गुफ़्तगू की आरज़ू,
हम किससे करें बात कोई बोलता ही नहीं…
जुड़ना सरल है…
पर
जुड़े रहना कठिन….
अनजाने शहर में अपने मिलते है कहाँ
डाली से गिरकर फूल फिर खिलते है कहाँ . . .
आसमान को छूने को रोज जो निकला करे
पिँजरे में कैद पंछी फिर उड़ते है कहाँ . . .
दर्द मिलता है अक्सर अपनो से बिछड़कर
टूट कर आईने भला फिर जुड़ते है कहाँ . . . .
ले जाते है रास्ते जिंदगी के दूर बहुत
मील के पत्थर जमे फिर हिलते है कहाँ . . .
दिल कहाँ कह पाता है औरों को अपनी भला
जख्म हुए गहरे गर फिर भरते है कहाँ . . . .
ले चल खुदा फिर मुझे मेरे शहर की ओर
जीने के अवसर भला फिर मिलते है कहाँ . .
लफ्ज़ लफ्ज़ उसकी यादो का मेरे ज़हन में दर्ज है
उसका इश्क़ ही इलाज है उसका इश्क़ ही मेरा मर्ज़ है|
क्या पता तुम कब भूल जाओ ये मोहब्बत…
जिसे हम ज़िन्दगी और तुम एक लफ्ज़ कहते हो…
जैसा याद और हिचकी मे है
वैसा ही कुछ ताल्लुक है
तमाम कोशिशें नाकाम रहीं
इस रिश्ते पर लफ्ज का रंग ना चढ़ा|
लिख लिख कर छोड़ देते हैं शायरियां जिसके लिए
बस, उन्ही को फ़ुरसत नहीं पढ़ने की !!
उसके सिवा किसी और को चाहना मेरे बस में नहीं हे , ये दिल उसका हे , अपना होता तो बात और होती ।