कितनी ज़ालिम है

ये बारिश भी कितनी ज़ालिम हे जो यूँ ही आकर चली जाती है…
..
याद दिलाती है मेरे मेहबूब की..
और भिगोकर मुझे चली जाती है……

मैं अकेला हूं

कहने को ही मैं अकेला हूं.. पर हम चार
है.. एक मैं.. मेरी परछाई..
मेरी तन्हाई.. और तेरा एहसास..”

तैरना तो आता था

तैरना तो आता था हमे मोहब्बत के समंदर मे लेकिन…
जब उसने हाथ ही नही पकड़ा तो डूब जाना अच्छा लगा…

फिर से सूरज

फिर से सूरज लहूलुहान समंदर में गिर पड़ा,
दिन का गुरूर टूट गया और फिर से शाम हो गई .

जब मैं डूबा

जब मैं डूबा तो समंदर को भी हैरत हुई ……
कितना तन्हा शख़्स है, किसी को पुकारता भी नही…..