कभी नूर-ओ-रँग

कभी नूर-ओ-रँग भरे चेहरे से
इन घनी जुल्फोँ का पर्दा हटाओ,जरा हम भी तो देखेँ,
आखिर
चाँद होता कैसा है….!!!

किसी के नहीं होते

आसमां पे ठिकाने किसी के नहीं होते,
जो ज़मीं के नहीं होते, वो कहीं के नहीं होते..!!

ये बुलंदियाँ किस काम की दोस्तों…
की इंसान चढ़े और इंसानियत उतर जायें….

आँखोँ के परदे भी

आँखोँ के परदे भी नम हो गए बातोँ के सिलसिले भी कम हो गए. . .
पता नही गलती किसकी है वक्त बुरा है या बुरे हम हो गए. .

कभी यूँ भी

कभी यूँ भी हुआ है हंसते-हंसते तोड़ दी हमने…
हमें मालूम नहीं था जुड़ती नहीं टूटी हुई चीज़ें..!!