मुमकिन है निकल आये यहाँ कोई मुसाफ़िर
रस्ते में लगाते चलो दो चार पेड़ और पेड़ |
Dil ke jazbaati lafzon ki ek mehfil ! | दिल के जज्बाती लफ्जो की एक महफ़िल !
मुमकिन है निकल आये यहाँ कोई मुसाफ़िर
रस्ते में लगाते चलो दो चार पेड़ और पेड़ |
सितारों के आगे जहां और भी हैं
अभी इश्क के इम्तेहाँ और भी हैं
तू शाहीन है परवाज़ है तेरा काम
तेरे सामने आसमाँ और भी हैं
क़नाअत न कर आलम-ए-रंग-ओ-बू पर
चमन और भी, आशियाँ और भी हैं
तहि जिंदगी से नहीं ये फिज़ाएं
यहाँ सैकड़ों कारवाँ और भी हैं|
उदास कर देती है हर रोज ये शाम मुझे लगता है जैसे,
कोई भूल रहा हो मुझे आहिस्ता आहिस्ता….
बिछड़कर राहे इश्क़ में इस क़दर हुए तन्हा
थके तन्हा, गिरे तन्हा, उठे तन्हा, चले तन्हा..
कभी तो अपने लहजे से ये साबित कर दो….
के मुहोब्बत तुम भी हम से लाजबाब करती हो….
तेरे दावे है तरक़्क़ी के तो ऐसा होता क्यूँ है
मुल्क मेरा अब भी फुटपाथ पे सोता क्यूँ है|
कहती है…उसकी बाँहो मे ही आऊँगी…
इस नींद के भी नखरे हज़ार है…
इतना भी आसान मतलब नहीं था मेरा,
जितनी जल्दी आपने ताली बजा डाली !!
मज़बूत से मज़बूत लोहा टूट जाता है
कई झूठे इकट्ठे हों तो सच्चा टूट जाता है|
तुम क्युँ मरते हो मुझ पे,
मैँ तो जिन्दा ही तुम से हुँ….!!