दर्द का रिश्ता

बड़ा है दर्द का

रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
चले

भी आओ…

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके

गरेबाँ का तार तार चले
चले भी आओ…

गुलों में रंग भरे,

बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा

आज ज़िक्र-ए-यार चले
चले भी आओ…

जो हमपे गुज़री सो गुज़री

मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले
चले भी

आओ…

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब्ज़ हो आग़ाज़
कभी तो शब

सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले
चले भी आओ…

मक़ाम ‘फैज़’

कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार

चले
चले भी आओ…!

कांटे वाली तार पे

कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
खून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यूँ इस फ़ौजी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है

वक़्त भरा जाता है

नाप के, वक़्त भरा जाता है,हर रेत घड़ी में
इक तरफ़ ख़ाली हो जब फिर से उल्ट देते हैं उसको

उम्र जब ख़तम हो,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता

कच्ची-सी सरहद

मैं रहता इस तरफ़ हूँ यार की दीवार के लेकिन
मेरा साया अभी दीवार के उस पार गिरता है

बड़ी कच्ची-सी सरहद एक अपने जिस्मों-जां की हैं