माना की दूरियां

माना की दूरियां कुछ बढ़ सी गयीं हैं लेकिन तेरे हिस्से का वक़्त आज भी तन्हा गुजरता है…!!!

तू बदनाम न हो

तू बदनाम न हो इसलिए जी रहा हूँ मैं, वर्ना मरने का इरादा तो रोज़ होता है।।

हम तो नादाँ है

हम तो नादाँ है क्या समझेंगे मोहब्बत के उसूलो को हमे इश्क है तुमसे बैपनाह, हमे चाहने से मतलब है|

अजीब ओ गरीब

मेरी ‘जिद्द ‘ भी कुछ अजीब ओ गरीब सी है । कहती है ..तुम मुझसे ‘नफरत’ करो पर गैरों से’मोहब्बत’ नही

मैं भूल सा गया हूँ

मैं भूल सा गया हूँ तुम्हारे बारे में लिखना आजकल सुकून से तुम्हें पढ़ सकूँ इतना भी वक्त नहीं देती है ये जिंदगी

हाथों की लकीरों में

मेरे हाथों की लकीरों में ये ऐब छुपा है, मैं जिसे भी चाह लूँ वो मेरा नहीं रहता…

कौन समझ पाया है

कौन समझ पाया है आज तक हमें ?? हम अपने हादसों के इकलौते गवाह हैं

एक आरज़ू है

एक आरज़ू है पूरी अगर परवरदिगार करे, मैं देर से जाऊं और वो मेरा इंतज़ार करे

ना जाने कैसे

ना जाने कैसे इम्तेहान ले रही है.. जिँदगी आजकल मुक्दर, मोहब्बत और दोस्त तीनो नाराज रहते है…..

गुफ्तगू करते रहिये

गुफ्तगू करते रहिये, ये इंसानी फितरत है.. जाले लग जाते हैं, जब मकान बंद रहते हैं….!!-

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