अजीब ओ गरीब

मेरी ‘जिद्द ‘ भी कुछ अजीब ओ गरीब सी है । कहती है ..तुम मुझसे ‘नफरत’ करो पर गैरों से’मोहब्बत’ नही

मैं भूल सा गया हूँ

मैं भूल सा गया हूँ तुम्हारे बारे में लिखना आजकल सुकून से तुम्हें पढ़ सकूँ इतना भी वक्त नहीं देती है ये जिंदगी

हाथों की लकीरों में

मेरे हाथों की लकीरों में ये ऐब छुपा है, मैं जिसे भी चाह लूँ वो मेरा नहीं रहता…

कौन समझ पाया है

कौन समझ पाया है आज तक हमें ?? हम अपने हादसों के इकलौते गवाह हैं

एक आरज़ू है

एक आरज़ू है पूरी अगर परवरदिगार करे, मैं देर से जाऊं और वो मेरा इंतज़ार करे

ना जाने कैसे

ना जाने कैसे इम्तेहान ले रही है.. जिँदगी आजकल मुक्दर, मोहब्बत और दोस्त तीनो नाराज रहते है…..

गुफ्तगू करते रहिये

गुफ्तगू करते रहिये, ये इंसानी फितरत है.. जाले लग जाते हैं, जब मकान बंद रहते हैं….!!-

कमाल का कारीगर

खुदा तुं भी कमाल का कारीगर नीकला, खींच क्या लि दो तीन लकीर तूने हाथोंमे ये भोला इन्सान उसे तक़दीर समझने लगा.. ||

जिन्दगी तेरी भी

जिन्दगी तेरी भी, अजब परिभाषा है । सँवर गई तो जन्नत, नहीं तो सिर्फ तमाशा है ।।

अब इस से भी

अब इस से भी बढ़कर गुनाह-ए-आशिकी क्या होगा ! जब रिहाई का वक्त आया..तो पिंजरे से मोहब्बत हो चुकी थी |

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