साहिब ए अकल

साहिब ए अकल हो तो एक मशविरा तो दो….

एहतियात से इश्क करुं या इश्क से एहतियात…..

ख़ुद के लिए

ख़ुद के लिए या ख़ुदा के लिए जीने की तमन्ना थी,
तुम कब ज़िंदगी बन गए रूह को इल्म ही ना हुआ|

आज पास हूँ

आज पास हूँ तो क़दर नहीं है तुमको,
यक़ीन करो टूट जाओगे तुम मेरे चले जाने से|

आंसुओ को बहुत

आंसुओ को बहुत समझाया की तन्हाई में आया करो
महफ़िल में हमारा मज़ाक न उडाया करो
इस पर आंसू तड़प कर बोले
इतने लोगो में आपको तन्हा पाते है
इसलिए चले आते है|

हो गए थे

हो गए थे जो कल शहीद वो सब तो आज भी जिंदा हैं
लाशें तो वो हैं, जो शहादत पर शतरंज सजाये बैठे हैं ।

अब और ना मुझको

अब और ना मुझको तू उन पुराने किये हुए मेरे फिज़ूल से वादों का हवाला दे
बंद कर बक्से में तेरी यादों को कर सकूँ काम अपने, तू बस ऐसा मज़बूत सा ताला दे|

समझने वालों को

समझने वालों को तो बस इक इशारा काफी होता है
वरना कभी कभार बिन चाँद के भी रात का गुजारा होता है ।