दर्द का रिश्ता

बड़ा है दर्द का

रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे ग़मगुसार चले
चले

भी आओ…

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूँ की तलब
गिरह में लेके

गरेबाँ का तार तार चले
चले भी आओ…

गुलों में रंग भरे,

बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है यारों, सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा

आज ज़िक्र-ए-यार चले
चले भी आओ…

जो हमपे गुज़री सो गुज़री

मगर शब-ए-हिज्राँ
हमारे अश्क तेरे आक़बत सँवार चले
चले भी

आओ…

कभी तो सुबह तेरे कुंज-ए-लब्ज़ हो आग़ाज़
कभी तो शब

सर-ए-काकुल से मुश्क-ए-बार चले
चले भी आओ…

मक़ाम ‘फैज़’

कोई राह में जचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार

चले
चले भी आओ…!

अब भी अंदाज़ मेरे

मत देखो, ऐसी नज़रों से, मुझको अय! हमराज़ मेरे .
मेरा शरमाना, ज़ाहिर कर देता है सब राज़ मेरे.

कितनी बार मशक्क़त की, पर सीधी माँग नहीं निकली.
लगता है कल रूठे साजन, अब भी हैं नाराज़ मेरे.

बरसों पहले, डरते – डरते ,बोसा एक चुराया था.
आज तलक कहती हैं के ‘जानम हैं धोखेबाज़ मेरे’.

आज मेरे अंजाम पे कुछ आँखों से पानी बरसेगा,
इन आँखों ने देखे थे, कुछ जोशीले आग़ाज़ मेरे .

तख़्त ओ ताज गया ,मेरी जागीर गयी,दस्तार गयी.
शाहाना क्यों लगते हैं, उनको अब भी अंदाज़ मेरे

मशहूर थे जो लोग

मशहूर थे जो लोग समंदर के नाम से
आँखे मिला नहीं पाए मेरे खाली जाम से

ऐ दिल ये बारगाह मोहब्बत की है यहाँ
गुस्ताखियाँ भी हो तो बहुत एहतराम से

मुरझा चुके है अब मेरी आवाज़ के कँवल
मैंने सदाएं दी है तुझे हर मक़ाम से

कुछ कम नहीं है तेरे मोहल्ले की लड़कियां
आवाज़ दे रही है मुझे तेरे नाम से

जहान की खिलावट

जहान की खिलावट में जुलूल नहीं आएगा,

गम-ए-तोहीन से कुबूल नहीं आएगा,

मक्लूल की इबरात है, यह कुर्फा ग़ालिब,

तुम पागल हो जाओगे पर यह शेर समझ नहीं आएगा….

एक ज़रा सी

एक ज़रा सी जोत के बल पर अंधियारों से बैर
पागल दिए हवाओं जैसी बातें करते हैं