शहर में देखो जवानी में बुढ़ापा आ गया
पर बुढ़ापे में जवानी, है अभी तक गांव मे
Category: व्यंग्य शायरी
कैसे शिकारी हो
तिरछी निगाहों से न देखो हुस्न की शमशीर को,
कैसे
शिकारी हो यारा सीधा तो कर लो तीर को
मुल्क का दस्तूर
जिन कायदों को तोड़ के मुजरिम बने थे हम
वो क़ायदे ही मुल्क का दस्तूर हो गए
पलकें भी चमक जाती
पलकें भी चमक जाती हैं सोते में हमारी,
आंखों को अभी ख्वाब छुपाने नहीं आते।
मैं अपनी धुन में
मैं अपनी धुन में आग लगाता चला गया
सोचा न था कि ज़द में मेरा घर भी आएगा
मृत्यु के बाद
मृत्यु के बाद
यही है
जीवन का कड़वा सच:-
1:-“पत्नी ” मकान तक
?
2:-“समाज”शमशान तक
3:-“पुत्र”अग्निदान तक
♨
सिर्फ आप के
“कर्म” भगवान तक
बात वक्त वक्त की
है बात वक्त वक्त की चलने की शर्त है
साया कभी तो कद के बराबर भी आएगा
मुझको धोका हो गया
अपनों को अपना ही समझा ग़ैर समझा ग़ैर को
गौर से देखा तो देखा मुझको धोका हो गया
गलत बातों को
गलत बातों को ठहराने सही हर बार संसद में
कोई जूते लगाता है कोई चप्पल चलाता है
देखा है मैंने
देखा है मैंने बड़ा इतराये फिरते थे वो अपने हुस्न-ए-
रुखसार पर …
बड़े मायूस हो गए है यारो….
जबसे देखी है अपनी तस्वीर कार्ड-ए-आधार पर