रात थी और स्वप्न था

रात थी और स्वप्न था तुम्हारा अभिसार था !
कंपकपाते अधरद्व्य पर कामना का ज्वार था !
स्पन्दित सीने ने पाया चिरयौवन उपहार था ,
कसमसाते बाजुओं में आलिंगन शतबार था !!

आखेटक था कौन और किसे लक्ष्य संधान था !
अश्व दौड़ता रात्रि का इन सबसे अनजान था !
झील में तैरती दो कश्तियों से हम मिले ,
केलिनिश का काल प्रिये मायावी संसार था !!

चंचल चूड़ी निर्लज्जा कौतक सब गाती रही !
सहमी हुई श्वास भी सरगम सुनाती रही !
मलयगिरी से आरोहित राहों के अवसान थे ,
प्रणय सिंधु की भाँवर में छाया हाहाकार था !!

नेह की अभिलाष भरी लालसा फिर तुम बनी !
मद भरा दो चक्षुओं में मदालसा फिर तुम बनी !
वेणी खुलकर यूँ बिखरी और रात गमक उठी ,
शशि धवल मुख देख खुद चाँद शर्मसार था !!

वक़्त का फेर

वक़्त का फेर
वक़्त है ढल चुका
और ढल चुका वो दौर भी….
फ़िर भी आइने में, वक़्त पुराना ढूंढते हैं !!
महफिलें सजती थीं जहाँ
दोस्तों के कहकहों से….
दीवारों-दर पे, उनके निशान ढूंढते हैं !!
कुछ दर्द वक़्त ने
तो कुछ हैं अपनों ने दिए….
अकेले आज भी, दिल के टूकड़ों को जोड़ते हैं !!