बेरूख़ी न दिखाओ

बेरूख़ी न दिखाओ के रात जाती है
नक़ाब रुख़ से उठाओ के रात जाती है

वो एक शब के लिए मेरे घर में आए हैं
सितारे तोड़ के लाओ के रात जाती है

तुम आये हो मैं ये कहता हूँ तुम नहीं आये
मुझे यकीन दिलाओ के रात जाती है

चराग-ए-दिल के उजाले को तुम सहर न कहो
बहाने यूँ न बनाओ के रात जाती है

तमाम उम्र पड़ी है शिकायतों के लिए
तुम आज दिल न दुखाओ के रात जाती है

शाम की तनहाईयाँ

ये शाम की तनहाईयाँ, ऐसे में तेरा गम,
पत्ते कही फड़के, हवा आयी तो चौंके हम,

जिस राह से तुम आने को थी, उस के निशान भी मिटने लगे,
आयी ना तुम सौ सौ दफ़ा, आये गये मौसम मीत…

सीने से लगा तेरी याद को, रोता रहा मैं रात को,
हालत पे मेरे चाँद तारे रो गये शबनम…!!

उस को भी

उस को भी हम से मोहब्बत हो ज़रूरी तो नहीं
इश्क़ ही इश्क़ की क़ीमत हो ज़रूरी तो नहीं

बेपनाह चाहा है

तकदीर को कुछ इस तरह से “अपनाया है मैंने ,
जो “नहीं था “तकदीर में ”
उसे भी “बेपनाह चाहा है मैंने ।।

चाय का मजा

अख़बार का भी अजीब खेल है
सुबह अमीर के चाय का मजा बढाता है
और रात में गरीब के खाने की थाली बन जाता है.

मेरी औकात है

किन्ही सज्जन ने बहुत सुंदर पंक्तियाँ लिखी हैं…. –

रहता हूं किराये की काया में…
रोज़ सांसों को बेच कर किराया चूकाता हूं….
मेरी औकात है बस मिट्टी
जितनी…
बात मैं महल मिनारों की कर जाता हूं…
जल जायेगी ये मेरी काया ऐक दिन…
फिर भी इसकी खूबसूरती
पर इतराता हूं….
मुझे पता हे मैं खुद के सहारे श्मशान तक भी ना जा सकूंगा…
इसीलिए जमाने में दोस्त बनाता हूँ ….